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खोते हमारे वो पल जिन्होंने हमें यहाँ पहुँचाया ……..

Alok Tiwari
Alok Tiwari
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स्कूल-कॉलेज खुलने वाले हैं। कैम्पस में नए साल में नया माहौल होगा। फिर वही सुबह-सुबह उठना, तैयार होना, यूनिफॉर्म-ड्रेस पहनना, भागते-दौड़ते ब्रेकफस्ट निगलना… और बैग संभालते हुए स्कूल बस या ऑटोरिक्शा, टैक्सी और ट्रेन की ओर दौडऩा। ज्यादातर पुराने क्लासमेट्स होंगे। कुछ नए भी। पुरानों से हाय-हैलो होगी। नयों से ‘इंट्रो’। इसके बाद होंगी बातें और खूब बातें। शुरू में इन बातों का एक ही टॉपिक होगा- समर वैकेशन कैसी रही। हरेक के पास बताने को खूब अनुभव होंगे। ढेरों यादें होंगी। यह बात कुछ इस तरह खत्म होगी- फ़न रहा, पर हेक्टिक रहा!

फन तो ठीक है। वैकेशन होती ही फन के लिए हैं। पर हैक्टिक? बात शायद आपके गले ना उतरे। पर है सच।

जी हां, समर वैकेशन सचमुच फन से ज्यादा हैक्टिक हो चली है। शुरू में कुछ दिन फन लगता है। बाद में बच्चों को लगने लगता है, अरे! ये तो पढ़ाई के दिनों जैसा ही हैक्टिक शेड्यूल हो गया। आप पूछेंगे, ये क्या बात हुई? छुट्टियों में भला आपाधापी का क्या काम? पर हमने आपाधापी को गले से बांध लिया है। अलग होने का नाम ही नहीं लेती। साथ-साथ चलती है। छुट्टियां शुरू होते ही, पहले कुछ दिन आराम में कटते हैं। खूब सोओ, टीवी देखो, गेमिंग-सर्फिंग-चैटिंग करो, खाओ-पियो। फिर ट्रैवल करो। घूमने जाओ कहीं। जहां तक जाने की औकात हो- यूएस, यूके, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर, इजिप्ट, कुआलालंपुर, ऊटी, कोडाईकनाल, महाबलेश्वर, माथेरान… हैसियत के अनुसार कोई भी जगह चुने लो। लेकिन नेटिव प्लेस? मतलब अगर आप मुंबई के बाहर के हैं, यानी किसी दूसरे राज्य के, तो वहां? लोग जाते भी हैं। पर जेननेक्स्ट इससे मुंह बिचकाती है। दिल्ली, यूपी, बिहार के नाम पर ‘ना-ना’ कहती है।

क्यों भला? ‘वहां की सड़ी गर्मी में कौन जाएगा?’
‘वहां दादा-दानी, नाना-नानी हैं। उनसे मिलेंगे।’
‘उन्हें यहीं बुला लो। बिजली तो वहां आती नहीं। गर्मी में पसीना नहीं, तेल निकलता है।’
‘चलो, एक हफ्ता, बस एक हफ्ता रह आते हैं।’
‘यहां लौटकर क्या करेंगे?’
‘फन करेंगे।’
और जब आखिर यह फन शुरू होता है, तो उससे भी जल्दी बोर हो जाते हैं।
फ्रेंड्स के साथ 24 घंटे तो नहीं रह सकते ना!
अब क्या किया जाए? एक्टिविटीज।

फिर शुरू होती हैं ऐक्टिविटीज। तरह-तरह की। हर उम्र के बच्चों के लिए। समर कैम्प। पर्सनैलिटी डिवेलपमेंट और पब्लिक स्पीकिंग जैसे शॉर्ट कोर्स। ड्राइंग क्लास। क्राफ्ट क्लास। म्यूजिक क्लास। ऐक्टिंग क्लास। टैटू क्लास। क्ले मोल्डिंग क्लास। जिम, स्विमिंग। जूडो क्लास। टैरो कार्ड रीडिंग क्लास। ब्यूटीशियन कोर्स और भी ना जाने क्या-क्या क्लास और कोर्स। गोया छुट्टियां ना हुईं, एक्सीलेंट या सुपरपर्सन बनने की रेस हो गई। पूरे एकेडमिक सैशन में तो यह रेस जारी रहती ही है- ऊंचे ग्रेड लाने की रेस, 80 परसेंट-90 परसेंट, 95 परसेंट और 95 प्लस परसेंट की रेस! एग्जाम्स होने पर भी ये रेस खत्म नहीं होती। जारी रहती है।

मुझे बचपन की छुट्टियां याद आती हैं। तब 24 घंटे टीवी, कंप्यूटर और मोबाइल फोन नहीं थे। सबके पास लैंडलाइन फोन कनेक्शन तक नहीं थे। इसलिए वक्त था। ढेर सारा वक्त। रायबरेली में टाउन हॉल लाइब्रेरी में घंटों बीतते। घर पर भी लाइब्रेरी जमी रहती। जो पढ़ते, उसकी चर्चा होती। इससे नॉलेज बढ़ती। यह नॉलेज कोर्स की किताबों से खूब दूर तक की होती। गांव जाता तो चौपाल, पनघट, खेतों की मेड़ों, अमराइयों और ट्यूबबैल के ठंडे पानी से रू-ब-रू होकर अनुभवों का नया संसार खुलता। लोग बातें करते। उन बातों में रस होता। स्नेह होता। प्रेम होता। ममता होती। सब कुछ होता। कुल मिलाकर सफल इंसान बनने के बजाय अच्छा इंसान बनने की घुट्टी मिलती।

पिछले साल अपने गांव गया, तो वहां भी अब वो सब नहीं रहा। बच्चे और किशोर चौपाल में बैठकर बड़े-बूढ़ों के जीवन अनुभव सुनने के बजाय पास के कस्बे के साइबर कैफे की ओर भागते हैं। वे सोंधी मिट्टी का नहीं, मनी का सपना देखने लगे हैं।

हैं- टाइम नहीं है, लाइफ बोरिंग है, कुछ एक्साइटमेंट नहीं है, फन नहीं है… हालांकि इन सबकी तलाश और चाह में बेचारे चकरघिन्नी की तरह घूमते रहते हैं।

आखिर ऐसा क्यों हुआ?

आर्थिक उदारीकरण ने हमें ‘सपने’ बहुत दिए, पर हमसे ‘अपने’ को ही छीन लिया। वैश्वीकरण ने दुनिया को गांव में बदल दिया और इस ग्लोबल विलेज ने हमें नई-नई टेक्नोलॉजी दी, फास्ट लाइफ दी, अपॉरच्यूनिटीज़ दीं। पर इन सबके साथ-साथ हमसे एक सौदा भी कर लिया- हमसे सहजता ले ली और हमें रोबोट जैसी मशीनी जिंदगी थमा दी। ये जिंदगी हमें सब कुछ देती है। नहीं देती तो जिंदगी का नैचरल फन नहीं देखी… जिंदगी का फन कहीं खो गया।
आखिर में बशीर बद्र का एक शेर याद आ रहा है-

कोई हाथ भी ना मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिजाज का शहर है, जरा फासले से मिला करो।

बशीर साहब ने कई दशक पहले महानगरों के चरित्र पर यह शेर कहा था। इक्कीसवीं सदी की इस दूसरी दहाई में गांव ही शहरों में नहीं आ रहे, महानगर भी अपनी सीमा का अतिक्रमण करके नगरों, कस्बों और शहरों तक जा रहे हैं… मतलब उनका किरदार वहां तक पहुंच गया है।

द्वारा

आलोक तिवारी

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