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विद्यार्थियों की मानसिकता

Alok Tiwari
Alok Tiwari
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देश भर में विद्यार्थी पूरे मनोयोग से पढ़ाई में लगे हैं। ज्यादातर राज्यों में अगले महीने बोर्ड की परीक्षाएं होंगी। दसवीं बारहवीं की परीक्षाएं फरवरी-मार्च में होती हैं। किसी भी विद्यार्थी के जीवन में इन परीक्षाओं का बहुत महत्व होता है। दरअसल, इन परीक्षाओं के परिणाम से ही आगे के जीवन की नींव पड़ती है, दिशा तय होती है। इसीलिए विद्यार्थियों की इन परीक्षाओं में ज्यादा से ज्यादा नंबर लाने की इच्छा होती है। उन पर बहुत ज्यादा दबाव होता है। दबाव शिक्षकों और अभिभावकों पर भी कम नहीं होता। शिक्षकों पर स्कूल का रिजल्ट अच्छा रखने का दबाव और अभिभावकों पर अपने बच्चों के अच्छे रिजल्ट का दबाव।

सब पर इस दबाव की वजह है जीवन के हर क्षेत्र में बढ़ती स्पर्धा। रोजगार पाना, उसे बरकरार रखना और आगे बढ़ते जाना बेहद मुश्किल होता जा रहा है। पढ़ाई में औसत बच्चों को तो यह अपनी पहुंच के बाहर ही लगता है। टॉप करने वाले बच्चों को ‘सुपर किड’ माना जाता है। पढ़ने में आम बच्चों और ‘खास बच्चों’ में अंतर बढ़ता ही जा रहा है। यह आर्थिक सुधार और वैश्वीकरण के बाद के परिदृश्य की एक और परिणति है। पहले पढ़ाई के स्तर और परीक्षा में प्रदर्शन के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता था। मेरे चचेरे भाई के नंबर हमेशा मुझसे करीब 15 प्रतिशत कम आते थे, पर किसी भी परिजन या रिश्तेदार ने उसे कभी इस बाबत कुछ नहीं कहा। हम दोनों में, आपस में भी और बाकी सबकी नजरों में भी हमेशा समानता का भाव रहा। न कभी इसके लिए मुझे खास दुलार मिला, न ही उसे फटकार मिली। पर अब ऐसा नहीं है। अब मेरा वही चचेरा भाई अपने बेटे को इसलिए डांटता है कि उसकी बुआ की बेटी से उसके नंबर कम क्यों आए।

हर घर में यही नजारा है। हर कोई अपने बच्चों को नंबरों की रेस में जीतते देखना चाहता है। यह कामना महानगरों और नगरों से कस्बों और गांवों तक जा पहुंची है। हरियाणा में हिसार के एक गांव में एक लड़के ने आत्महत्या कर ली। वह पिछले साल दसवीं में फेल हो गया था। इस बार फिर दसवीं की परीक्षा देने वाला था। उसके पिता ने उसे डांट दिया कि अब की बार फेल हुआ, तो घर में रोटी नहीं मिलेगी। उसे तो पहले से ही डर लग रहा था कि पास नहीं हो पाएगा। पिता की धमकी के बाद वह और डर गया। उसने कुएं में कूदकर जान दे दी। मुंबई में बारहवीं की 17 साल की एक छात्रा और 18 साल के एक छात्र ने आत्महत्या कर ली। छात्रा ने फांसी लगा ली। उसे डर था कि परीक्षा में उसके अच्छे नंबर नहीं आएंगे। छात्र ने जहर पी लिया। कॉलेज में अटेंडेंस कम होने के कारण वह परीक्षा देने से रोका जाने वाला था।

इस तरह के डर देश भर में लाखों विद्यार्थियों को होंगा। जैसे-जैसे परीक्षाएं नजदीक आती हैं, विद्यार्थियों और अभिभावकों पर दबाव और तनाव बढ़ता जाता है। यह अपरिपक्व, असंतुलित और हर बात में दूसरों से तुलना करने वालों पर ज्यादा हावी होता है। विद्यार्थियों की यह उम्र बहुत भावुक होती है। वे हर बात को लेकर बेहद संवेदनशील होते हैं। उनके जीवन में तेजी से बहुत कुछ घट रहा होता है। वे अपने भविष्य को लेकर तरह-तरह के सपने बुन रहे होते हैं। परीक्षा को लेकर जरा सहमे हुए भी होते हैं। ऊपर से परिवार, रिश्तेदारों, पड़ोसियों और दोस्तों की बढ़ी-चढ़ी अपेक्षाएं। उनका किशोर मन इन तमाम दबावों से परेशान हो जाता है। वे इस पूरे सिस्टम से बगावत करना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि उन्हें सहज भाव से कोशिश तो करने दी जाये। आखिर अपना सुखद भविष्य तो वे भी चाहते हैं। उनकी कामना भी अच्छे नंबर लाकर, अच्छा  कोर्स करके, जीवन में कुछ बनने की होती है। वे अपने आप ही पूरी मेहनत करना चाहते हैं। करते भी हैं।

मगर, जीवन का एक बड़ा सच और भी है। हरेक की योग्यता और क्षमता अलग होती है। हमारे ही आसपास 50 प्रतिशत अंक लाने बच्चें भी हैं और 90 प्रतिशत वाले भी। सबको अपने हिस्से का आसमान मिल ही जाता है। किसी को छोटा टुकड़ा, किसी को बड़ा। हालांकि यह कहना आसान है कि बज्चों पर किसी तरह का दबाव न डाला जाये, पर है जरूरी। सबसे ज्यादा जरूरत है बच्चों के स्वभाव और मन को समझने की। अगर किसी को अपने बच्चे के मन में उथल-पुथल के थोड़े से भी लक्षण नजर आयें, तो सावधान हो जाना चाहिए। हमेशा उन पर निगरानी न की जाये, पर नजर जरूर रखी जाये। उनसे डांट-फटकार न की जाये। उनकी भावनाओं को समझा जाये। उनके मन को ठेस पहुंचने वाली कोई बात न कही जाये। उन्हें यह अहसास कराया जाये कि आप उन्हें प्यार करते हैं, उनके नंबरों या ग्रेड्स को नहीं।

अच्छे नंबर और ग्रेड्स जरूरी है, पर वही सब कुछ नहीं है। यह सच है कि बिना अच्छे नंबरों, ऊंची शिक्षा और बेहतरीन डिग्री के आज कोई जिंदगी में औसत मुकाम हासिल नहीं कर सकता। इस सबके बावजूद, अगर कोई मुकाम को हासिल नहीं कर पाता, तो भी वह है तो इसी समाज का हिस्सा। हमारे सिस्टम और क्रूर सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य में उसके लिए कोई करुणा नहीं है। हमें तो होनी चाहिए। दुर्भाग्य से, यही नहीं हो पा रहा है… …

ऐसा हो सकता है, अगर हम बज्चों को हर रूप में, मन से अपनायें। हमें बच्चों का दोस्त बनना होगा, पुलिसिया अभिभावक नहीं। यह मुमकिन होने पर समूचा परिदृश्य धीरे-धीरे खुलेगा। उस खुलाव से बच्चों के मन मजबूत होंगा। वे हंसते-खिलखिलाते परीक्षा देंगे। परीक्षा का परिणाम चाहे जो हो। कम से कम उनके मन में जीवन से पलायन करने का विचार तो नहीं आएगा

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